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उच्च न्यायालयों में न्यायिक विविधता: एक आलोचनात्मक विश्लेषण

22.05.2025

 

​​​​​​​ उच्च न्यायालयों में न्यायिक विविधता: एक आलोचनात्मक विश्लेषण

प्रसंग
 क़ानून मंत्रालय और न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित हालिया आंकड़े यह दर्शाते हैं कि उच्च न्यायालयों में हाशिए पर मौजूद समुदायों और महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार कम है, जिससे भारत की उच्च न्यायपालिका में समावेशिता और प्रणालीगत पक्षपात को लेकर गंभीर चिंताएँ उठ रही हैं।

प्रमुख घटनाक्रम

  • 2018 के बाद से की गई न्यायाधीश नियुक्तियों के विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग 78% नियुक्त न्यायाधीश उच्च जातियों से हैं।
  • ओबीसी वर्ग से मात्र 12%, अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) से प्रत्येक 5%, और अल्पसंख्यक समुदायों से भी केवल 5% न्यायाधीश नियुक्त हुए।
  • जनवरी 2023 में एक संसदीय समिति को दिए गए प्रस्तुतीकरण के अनुसार, 2018–2022 के बीच 537 नियुक्तियों में से उच्च जातियों का हिस्सा 79%, ओबीसी का 11%, एससी का 2.8%, एसटी का 1.3%, और अल्पसंख्यकों का 2.6% रहा।
  • अगस्त 2024 तक उच्च न्यायालयों में केवल 14% महिला न्यायाधीश हैं।
  • एक ही नियुक्ति चक्र में 14 न्यायाधीश ऐसे थे जो सेवा में या सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के परिवार के सदस्य थे—और सभी सामान्य वर्ग से थे।
     

कानूनी और संस्थागत ढांचा

संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 124: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति
  • अनुच्छेद 217: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति
  • अनुच्छेद 224: अतिरिक्त और कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति

नियुक्ति प्रक्रिया:

  • प्रक्रिया की शुरुआत उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश करते हैं
  • सिफारिशें उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा की जाती हैं
  • अंतिम नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा न्यायपालिका से परामर्श कर की जाती है
     

आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं:

  • संविधान में उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है
     

सरकार की भूमिका:

  • केंद्र सरकार मुख्य न्यायाधीशों से विविधता सुनिश्चित करने का अनुरोध करती है, लेकिन स्वतंत्र रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं कर सकती
  • अंतिम निर्णय कॉलेजियम प्रणाली के पास होता है।
     

वर्तमान प्रतिनिधित्व के आंकड़े

जाति और समुदाय के अनुसार प्रतिनिधित्व (2018–2024):

वर्ग

प्रतिशत

संख्या (715 में से)

उच्च जातियाँ

~78%

~557

अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)

~12%

89

अनुसूचित जाति (SC)

~5%

22

अनुसूचित जनजाति (ST)

~5%

16

अल्पसंख्यक

~5%

37

लैंगिक प्रतिनिधित्व:

  • अगस्त 2024 तक महिला न्यायाधीश: 754 में से 106 (~14%)
  • प्रगति: 2021 में 11%, 2023 में 13%, 2024 में 14%
  • वर्तमान में उच्च न्यायालयों में केवल 2 महिला मुख्य न्यायाधीश
  • 8 उच्च न्यायालयों में सिर्फ एक महिला न्यायाधीश; त्रिपुरा और मेघालय में एक भी नहीं
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में सबसे अधिक 14 महिला न्यायाधीश
  • प्रति प्रतिशत सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व: सिक्किम (33%), तेलंगाना (29.6%), गुजरात (27.5%)
     

चुनौतियाँ

1. संरचनात्मक रूप से उच्च जातियों का प्रभुत्व:

  • कॉलेजियम प्रणाली में विविधता को लेकर कोई बाध्यकारी दिशा-निर्देश नहीं हैं।
  • जातीय डेटा की नियमित घोषणा नहीं होती

2. महिलाओं और अल्पसंख्यकों का कम प्रतिनिधित्व:

  • विधि विद्यालयों में नामांकन बढ़ने के बावजूद, महिलाओं का न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व धीमी गति से बढ़ रहा है।
  • अल्पसंख्यक और अनुसूचित जाति/जनजाति का प्रतिनिधित्व अभी भी बेहद कम है।

3. भाई-भतीजावाद और पारिवारिक प्रभाव:

  • सेवा में या सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के परिजनों की नियुक्ति से क्लब संस्कृति और विशिष्ट वर्ग का वर्चस्व झलकता है।

4. पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी:

  • कॉलेजियम की प्रक्रिया गोपनीय होती है और विविधता से जुड़ा कोई बाध्यकारी मानक नहीं है।
  • सरकार की भूमिका केवल सलाहकार तक सीमित है, निर्णयकारी नहीं।

सिफारिशें और आगे का रास्ता

1. विविधता मानकों का संस्थानीकरण:

  • कोटा नहीं, बल्कि लक्ष्य आधारित विविधता को कार्यप्रणाली ज्ञापन (MoP) में शामिल किया जाए।
  • जाति और लिंग के आधार पर नियमित ऑडिट की व्यवस्था की जाए।

2. पारदर्शी कॉलेजियम सुधार:

  • नियुक्तियों की जनसांख्यिकीय जानकारी सार्वजनिक की जाए।
  • पात्रता मानदंड में विविधता मानक को जोड़ा जाए।

3. न्यायिक पहुंच और प्रशिक्षण:

  • SC/ST/OBC और अल्पसंख्यक विधि पेशेवरों के लिए न्यायिक मेंटरिंग योजनाएँ बनाई जाएं।
  • UK मॉडल की तर्ज़ पर कार्य-अनुसरण और समावेशिता संवेदनशीलता कार्यक्रम प्रारंभ हों।

4. प्रतिभा स्रोत का विस्तार:

  • क्षेत्रीय और राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों को उच्च न्यायालयों के लिए पोषण संस्थान के रूप में प्रोत्साहित किया जाए।
  • वंचित पृष्ठभूमियों से आने वाले प्रतिभाशाली पहले-पीढ़ी के वकीलों के लिए अनुभव मानदंडों में लचीलापन लाया जाए।

निष्कर्ष

न्यायपालिका की वैधता के लिए केवल स्वतंत्रता नहीं, विविधता भी अनिवार्य है। उच्च न्यायालयों में महिलाओं और हाशिए पर मौजूद समुदायों का प्रतिनिधित्व अभी भी अपर्याप्त है। भले ही संवैधानिक रूप से कोई आरक्षण न हो, लेकिन न्यायसंगतता और लोक विश्वास के लिए सक्रिय प्रयास आवश्यक हैं।

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