
भारत में “धर्म आधारित आरक्षण” की प्रासंगिकता
भारत में “धर्म आधारित आरक्षण” की प्रासंगिकता
GS-1: भारतीय समाज
(IAS/UPPCS)
08/05/2024
स्रोत: IE, DJ
ख़बरों में क्यों:
हाल ही के दिनों,18 वीं लोकसभा चुनाव के दौरान सतापक्ष और विपक्ष राजनीतिक दलों के मध्य धर्म-आधारित आरक्षण का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है।
आरक्षण:
- आरक्षण (Reservation) से अभिप्राय अपने पद एवं स्थान सुरक्षित करने से है। आरक्षण का संबंध सामान्यतया स्थानीय, लोकसभा या विधानसभा चुनाव या फिर सरकारी विभाग में नौकरी से होता है।
भारत में आरक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं इसके विभिन्न चरण:
- हंटर आयोग: 1882 में हंटर आयोग के गठन से आरक्षण की मांग।
- तत्कालीन विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आरक्षण की मांग की गयी।
- 1891 में, त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।
- 1901 में, महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत। इसके तहत भारत में दलित समुदायों के लिए पहली बार आरक्षण की मांग की गयी थी।
- 1909 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
- 1935 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूना समझौता के सन्दर्भ में दलित वर्ग के लिए निर्वाचन क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान सुनिश्चित किया था।
- भारत सरकार अधिनियम-1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
- 1942 में, बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों को सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की।
- 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए संविधान में आरक्षण का विशेष प्रावधान किया गया।
कालेलकर आयोग:
- 1953 में, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन | इस आयोग ने SC और ST के लिए आरक्षण की सिफारिश की, लेकिन OBC के लिए आरक्षण को अस्वीकार कर दिया गया|
मंडल आयोग:
- 1979 में, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग का गठन।
- 1990 में, मंडल आयोग की सिफारिशों को पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया।
- 1991 में, पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से उच्च जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की।
- 1992 में, इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया|
- 1995 में, संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा SC और ST के लिए आरक्षण के प्रावधान हेतु अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया।
- 12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य पेशेवर कॉलेजों सहित सहायता प्राप्त कॉलेजों में अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक लिए आरक्षण बाध्यकारी नहीं हो सकता है।
- 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए 93 वें सांविधानिक संशोधन द्वारा निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण सुनिश्चित कर दिया गया।
- 2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
- 10 अप्रैल 2008 को सर्वोच्च न्यायालय ने वित्त पोषित संस्थानों में 27% OBC कोटा लागू करने को सही ठहराया|
आरक्षण की वर्तमान स्थिति:
- वर्तमान में भारत सरकार द्वारा उच्च शिक्षा में 49.5% आरक्षण का प्रावधान किया गया है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, लेकिन राजस्थान और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने क्रमशः 68% और 87% तक आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें उच्च जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।
धर्म-आधारित आरक्षण:
- धर्म-आधारित आरक्षण की अवधारणा सर्वप्रथम 1936 में त्रावणकोर-कोचीन राज्य में लागू की गई थी।
- वर्तमान में कुछ राज्यों में मुस्लिमों को आरक्षण का लाभ दिया गया है|
केरल:
- केरल राज्य ने ओबीसी श्रेणी में लगभग 22% मुस्लिम आबादी को आरक्षण का लाभ दिया है।
तमिलनाडु:
- तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों के लिए 3.5-3.5% सीटें आवंटित की हैं, जिससे ओबीसी आरक्षण 30% से 23% कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया।
कर्नाटक:
- कर्नाटक ने जस्टिस ओ चिन्नप्पा रेड्डी के आयोग की अनुशंसा के तहत मुसलमानों को पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण में शामिल किया है।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना:
- आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों ने मुस्लिमों को पिछड़ेपन के आधार पर ही क्रमशः5% और 12% आरक्षण का लाभ देना का प्रस्ताव किया है जो तमाम आलोचनाओं के कारण लागू नहीं किए जा सके हैं क्योंकि ये सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% सीमा से अधिक हैं ।
- केंद्र सरकार ने अनेक मुसलमान समुदायों को पिछड़े मुसलमानों में सूचीबद्ध कर रखा है, इससे वे आरक्षण के हकदार होते हैं।
आरक्षण के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान में धर्म-आधारित आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है जैसा कि अनुच्छेद 15 में उल्लिखित है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- हालांकि, भारतीय संविधान में सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा के आधार पर पिछड़े और दलित समुदाय को आरक्षण का लाभ दिया जाता रहा है जो वर्तमान में भी लागू है। और यह एक अपवाद है।
- अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।
- अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है।
- अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
महत्त्व:
- सामाजिक समानता: धर्म आधारित आरक्षण का महत्त्व सामाजिक समानता को प्राप्त करने में है। इसके माध्यम से, वे समुदाय और वर्ग जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, को उनके हक के साथ समान अवसर प्राप्त होते हैं।
- न्याय और समानता: आरक्षण का महत्त्व न्याय और समानता के मामले में है। यह उन व्यक्तियों को उनके क्षमताओं और प्रतिभाओं के आधार पर अवसर प्रदान करता है, जो सामाजिक या आर्थिक कारणों से पीछे रह गए हैं।
- राजनीतिक आर्थिक सामर्थ्य: आरक्षण का महत्त्व राजनीतिक और आर्थिक सामर्थ्य के लिए भी है। इससे विभिन्न समुदायों को राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में भाग लेने का मौका मिलता है और सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलता है।
- शिक्षा और रोजगार: धर्म आधारित आरक्षण का महत्त्व शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में है। यह उन वर्गों को उन्नत शिक्षा और रोजगार के अवसर प्रदान करता है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे हैं।
- सामाजिक एकता: धर्म आधारित आरक्षण का महत्त्व सामाजिक एकता और सौहार्द को बढ़ावा देने में भी है। यह विभिन्न समुदायों को एक साथ लाता है और भेदभाव को कम करने में मदद करता है।
आलोचना:
- उपयोगिता और प्रभाव: कुछ लोग यह मानते हैं कि यह सिर्फ कुछ वर्गों के लिए अवसर प्रदान करता है और अन्यों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करता है।
- विकास और प्रगति की रुकावट: धर्म आधारित आरक्षण के कुछ विरोधी तत्व यह मानते हैं कि इससे विकास और प्रगति में रुकावट आती है, क्योंकि यह कौशल और क्षमता को उनके अनुसार नहीं चुनता।
- समाजिक विवाद: धर्म आधारित आरक्षण को लेकर समाज में विवाद उत्पन्न होते हैं, जो भारतीय समाज को विभाजित कर सकते हैं और सामाजिक समरसता को कमजोर कर सकते हैं।
- कार्यक्षमता के नाम पर भ्रष्टाचार: कुछ लोग यह भी मानते हैं कि धर्म आधारित आरक्षण का उपयोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है, क्योंकि यह कार्यक्षमता की बजाय जाति या धर्म के आधार पर नौकरियों और पाठ्यक्रमों की वितरण को निर्धारित करता है।
- संवैधानिक तत्व: कुछ लोग संविधान के मूल्यों के अनुसार, धर्म आधारित आरक्षण को अवांछित मानते हैं, क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।
निष्कर्ष:
धर्म-आधारित आरक्षण का इतिहास भारतीय समाज में समाजिक न्याय और समानता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम रहा है, लेकिन उसके प्रभाव और उपयोग को लेकर विवाद भी हमेशा रहे हैं। इसलिए धर्म आधारित आरक्षण के महत्त्व और आलोचनाओं का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि उसके उपयोग में सुधार किया जा सके और समाज को विकसित करने के लिए उपयुक्त नीतियों को अमल में लाया जा सके।
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मुख्य परीक्षा प्रश्न:
भारत में धर्म आधारित आरक्षण का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।