जलवायु संकट का खेती पर दुष्प्रभाव

जलवायु संकट का खेती पर दुष्प्रभाव

मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन पेपर III

(कृषि क्षेत्र से संबंधित मुद्दे एवं चुनौतियां)

संदर्भ:

  • वर्तमान में दुनिया के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती जलवायु संकट की है। जलवायु परिवर्तन के खेती पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को गंभीरता से नहीं लिया गया तो निकट भविष्य में भारी खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने की आशंका है।
  • पिछले एक दशक में देश में बाढ़, सूखा, अत्यधिक सर्दी, कम समय में बहुत अधिक बारिश, गर्म हवाओं और तापमान वृद्धि जैसे कारणों से फसलें निरंतर प्रभावित हो रही हैं।

जलवायु संकट के खेती पर दूरगामी दुष्प्रभाव:

  • विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार आगामी पंद्रह वर्षों में जलवायु संकट के कारण पैदावार में कमी होने से भारत के साढ़े चार करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी में जीवन यापन को मजबूर हो जाएंगे।
  • अगले डेढ़ दशक में देश की धरती के तापमान में दो डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि तय मानी जा रही है। नतीजतन, मानसून की तीव्रता में दस फीसद तेजी आएगी। यानी कम समय में बहुत अधिक बारिश, पानी की बूंदों का आकार बड़ा होने, बादल फटने और आकाशीय बिजली गिरने की आवृत्ति बढ़ेगी।
  • पिछले पांच वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि हिमाचल, उत्तराखंड सहित उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में आसमानी बिजली गिरने की घटनाओं में पंद्रह फीसद की दर से वृद्धि हुई है।
  • कम समय में अत्यधिक बारिश से बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं। बारिश के बाद इन्हीं स्थानों पर लंबे सूखे के हालात बने हैं।
  • वैज्ञानिक अनुमान के मुताबिक तापमान में दो डिग्री की वृद्धि से देश का गेहूं उत्पादन एक करोड़ टन कम हो जाएगा।
  • कार्बन डाईआक्साइड की वृद्धि से फसलों में प्रोटीन सहित अन्य तत्वों की मात्रा कम होगी।
  • पशुओं की प्रजनन क्षमता में कमी के साथ उनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता में गिरावट दर्ज होगी।
  • पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक अनुसंधान में जलवायु संकट से वर्ष 2050 तक चावल के उत्पादन में एक फीसद और मक्का तथा कपास के उत्पादन में क्रमश: तेरह और ग्यारह फीसद कमी आने की आशंका है।
  • पिछले साल फसल पकते समय अचानक गर्म हवाएं चलने से गेहूं उत्पादन के पूर्वानुमान में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई थी।
  • पिछले वर्ष 2022 में मानसून में देरी और बारिश की अधिकता के कारण खरीफ फसलों में उड़द, मूंग, तिलहन सहित धान का उत्पादन अनुमान से कम रहा था।
  • जलवायु संकट के चलते देश की कृषि में जीवांश की मात्रा तेजी से कम हुई है। कृषि योग्य मिट्टी में आवश्यक जैविक तत्व की मात्रा तीन से छह फीसद होने के बजाय सिर्फ 0.5 फीसद रह गई है।
  • अगर इसी तरह जैविकता नष्ट करने की प्रक्रिया आगे भी जारी रही, तो आगामी पचास वर्षों में भारत की खेतिहर भूमि की उर्वरता पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।
  • आगामी दिनों में मौसम वैज्ञानिकों ने समय पूर्व तापमान में वृद्धि, उत्तर भारत में समय से पूर्व लू चलने की आशंका व्यक्त की है। इसके असर से दलहनी फसलों सहित गेहूं की फसल समय से पहले ही पक कर तैयार हो जाएगी और पैदावार में गिरावट की आशंका है।
  • वैश्विक जलवायु सूचकांक में जिन देशों पर सबसे नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला है, भारत उनमें चौदहवें स्थान पर है। भारत में 2050 तक औसत वर्षा के दिनों में साठ फीसद की गिरावट अनुमानित है, जिससे पैदावार में तेज गिरावट की आशंका है।
  • पड़ोसी देशों में उत्पादन में गिरावट की विकराल स्थितियां संभव हो सकती हैं।

खेती के लिए जलवायु संकट उत्पन्न करने वाले कारक

फसल अवशेष और पराली

  • देश में गेहूं, धान, मक्का और सोयाबीन की फसलों से प्रतिवर्ष सात सौ लाख मीट्रिक टन अवशेष उत्पन्न होता है। इसका बीस फीसद प्रतिवर्ष किसान जला देते हैं, जो वातावरण में विषाक्त गैसों की मात्रा में वृद्धि, ओजोन परत के नुकसान, मिट्टी के जीवांश को नष्ट करने के साथ मृदा में उपलब्ध फास्फोरस और पोटाश को अघुलनशील बनाकर ठोस रूप में परिवर्तित करने के लिए जिम्मेदार है। इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति के साथ उसकी जल अवशोषण क्षमता को बहुत अधिक नुकसान होता है।

नाइट्रोजन का अत्यधिक उपयोग

  • देश में नाइट्रोजन का अत्यधिक उत्सर्जन भी जलवायु संकट का एक बड़ा कारण है। नाइट्रोजन का सीमित उपयोग पौधों को आवश्यक पोषक तत्व देने और प्रोटीन निर्माण में आवश्यक है, लेकिन इसका अंधाधुंध इस्तेमाल मृदा की जल अवशोषण क्षमता और जैव विविधता के लिए अत्यधिक नुकसानदेह है।

यूरिया का अधिकतम उपयोग

  • यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल के खतरों से भी बचाना होगा। इससे बढ़ते जलवायु संकट की रफ्तार थोड़ी धीमी होगी और खेती किसानी को भी बचाया जा सकेगा।

जलवायु संकट से निपटने हेतु भारत सरकार के कार्यक्रम:

जलवायु संकट के नतीजों से कृषि को बचाने के लिए भारत सरकार ने अभी तक कोई विशेष कार्ययोजना पेश नहीं की है।

  • जलवायु स्मार्ट कृषि
  • देश में जलवायु स्मार्ट कृषि  राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की परस्पर चुनौतियों का सामना करने के लिए लागू की गयी है।
  • यह एक एकीकृत दृष्टिकोण है, जिसमें फसली भूमि, पशुधन, वन और मत्स्य पालन के प्रबंधन का प्रावधान शामिल है।

जलवायु संकट से निपटने हेतु सुझाव:

  • जलवायु संकट के कुप्रभावों को वापस कर पाना संभव नहीं है, लेकिन उपाय के तौर पर प्रतिकूल परिस्थितियों में पैदावार के बचाव की कार्ययोजना तैयार की जा सकती है।
  • किसानों के लिए क्षणिक लाभ देने वाली घोषणाओं के बजाय पैदावार बचाने की योजनाएं तैयार कर समयबद्ध कार्य करने की आवश्यकता है।
  • इसके लिए सबसे पहले वर्षा जल संरक्षण और इस पर आधारित कृषि पर काम करना होगा। कम समय में अधिक वर्षा के अंदेशे के मद्देनजर वर्षा जल को न केवल खेतों में रोकना, बल्कि इसे जमीन के अंदर भी पहुंचाना है।
  • प्रत्येक खेत में तालाब, मेंड़ बांधना और उन पर पेड़ लगाना अनिवार्य करना होगा।
  • तेज गर्मी और कम समय की वर्षा में सिंचाई के लिए अब एकमात्र विकल्प वर्षा जल के संचयन से खेती करना है।
  • इसके साथ भविष्य के लिए भूमिगत जल सुरक्षित बनाने के लिए वर्षा जल को नलकूपों के माध्यम से भूमि में उतारना आवश्यक होगा।
  • भारत सरकार को जैविक कृषि को बढ़ावा देना चाहिए। 
  • भारत भूमिगत जल के दोहन में दुनिया के शीर्ष स्थान पर है। इसके विपरीत भूमिगत जल संचय में देश का योगदान नगण्य है। जैविक कृषि से संबंधित एक अनुसंधान बताता है कि अगर कृषि भूमि की कार्बनिक क्षमता में एक फीसद की भी वृद्धि कर दी जाए, तो प्रति हेक्टेयर जमीन की जलधारिता में 75 लीटर की वृद्धि संभव है।
  • भीषण गर्मी में खेतों में संरक्षित जल को वाष्पीकरण से बचाने के लिए खेतों-तालाबों की ऊपरी सतह पर सोलर पैनल लगाकर पानी के वाष्पीकरण को रोकने के साथ खेतों में बिजली उत्पादन की योजना को मूर्त रूप दिया जाना चहिए।
  • देश के कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केंद्र अधिक पैदावार वाले बीज विकसित कर रहे हैं, जिन्हें अधिक सिंचाई की जरूरत होती है। जलवायु संकट की चुनौती के मद्देनजर अब इन्हें कम अवधि, कम सिंचाई और मौसमी परिवर्तन सहन करने वाले बीज विकसित करने की आवश्यकता है।
  • फसलों को मौसमी परिवर्तन और सूखे से बचाने के लिए अब देश को हाइट्रोजेल तकनीक अपनाने की आवश्यकता है।
  • विकसित देशों में लोकप्रिय हाइट्रोजेल बीज अंकुरण, जड़ वृद्धि सहित फसली पौधों को सूखे और गलन से बचाने का कार्य करते हैं। पानी के वाष्पीकरण को कम करने के साथ हाइट्रोजेल चालीस डिग्री सेल्सियस के उच्च तापमान तक कार्य करने में सक्षम होते हैं। ये अपने सूखे वजन से चार सौ गुना पानी अवशोषित कर सूखे के दौरान फसल की जड़ों तक पहुंचाने का कार्य करते हैं।
  • संरक्षण कृषि और शुष्क कृषि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  • प्रत्येक गाँव को विभिन्न फसल कीटों और महामारियों से संबंधित मौसम आधारित पूर्व चेतावनी के साथ  वर्षा की पूर्वानुमान की जानकारी दी जानी चाहिए।
  • निरंतर सिचाई के पानी, हवा की आर्द्रता और ओस की बूंदों को अवशोषित कर आवश्यक समय में फसल को पानी की आपूर्ति करते हैं। यह तकनीक देश की कृषि पद्धति के अनुकूल होने के साथ पर्यावरण रक्षक और किफायती है। सरकार को इसे प्रोत्साहित करना चहिए। मिट्टी की जैविकता को बचाने के लिए गाय के गोबर और फसल अवशिष्टों से निर्मित खाद सबसे उत्तम है।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न:

                          जलवायु संकट के खेती पर होने वाले दुष्प्रभावों की विवेचना कीजिए।