जातिगत जनगणना का महत्त्व

 

जातिगत जनगणना का महत्त्व

प्रारंभिक परीक्षाओं हेतु महत्वपूर्ण:

रोहिणी आयोग, मंडल कमीशन, जनगणना, सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना

मुख्य परीक्षाओं हेतु महत्वपूर्ण:

जीएस-3: जातिगत जनगणना का महत्त्व, चुनौतियां, रोहिणी आयोग की सिफारिशें,  बिहार सरकार का जातिगत सर्वेक्षण

15 अक्टूबर, 2023

संदर्भ:

  • न्यायमूर्ति जी रोहिणी के नेतृत्व वाले आयोग द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण के उप-वर्गीकरण की सिफारिश का मसौदा प्रस्ताव प्रस्तुत के बाद, वर्ष 2022 से देश में सामान्य जनगणना के साथ जातिगत जनगणना की मांग बढ़ रही है।
  • हाल ही में बिहार में हुई जातिगत जनगणना पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार के बाद से इस मुद्दे पर विपक्षी दलों ने सियासत तेज कर दी है। विपक्षी दलों की मांग है कि पूरे देश में जाति जनगणना कराई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार द्वारा किए गए जाति-आधारित सर्वेक्षण की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई जनवरी 2024 तक के लिए स्थगित कर दी है।
  • विशेष रूप से, कोर्ट ने राज्य पर जाति-सर्वेक्षण पर कार्य करने से रोक लगाने के लिए रोक या यथास्थिति का कोई भी आदेश पारित करने से इनकार कर दिया। पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि हम राज्य सरकार या किसी भी सरकार को निर्णय लेने से नहीं रोक सकते। आइए जानते हैं, जातीय जनगणना को लेकर भारत का क्या रहा है इतिहास।

जातीय जनगणना का इतिहास: 

  • भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरूआत साल 1872 में की गई थी। अंग्रेजों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया। आजादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया। हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिसकी राजनीति जाति पर आधारित थी। इन दलों ने राजनीति में तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया।
  • केंद्र सरकार के अनुसार, जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी। वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज्यादा थी
  • कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अभाव के स्तर को निर्धारित करने के लिए सामाजिक-आर्थिक जनगणना के साथ-साथ 2010 में स्वतंत्र भारत की पहली जाति जनगणना आयोजित करने का निर्णय लिया। लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार जैसे ओबीसी नेताओं ने इस फैसले का समर्थन किया था।

मंडल कमीशन का गठन हुआ

  • साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था। मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफारिश की, लेकिन इस सिफारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका। इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए। चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए।
  • आखिरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राजी होना पड़ा। 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए। इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई, लेकिन आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।

रोहिणी आयोग की सिफारिश:

  • ओबीसी आरक्षण के अंतर्गत लगभग 2,633 जातियाँ शामिल हैं। राज्यों के पास स्थानीय ओबीसी आयोगों द्वारा निर्धारित स्थानीय अभाव स्तरों के आधार पर जातियों को केंद्रीय सूची में जोड़ने की छूट है। फरवरी 2021 में, रोहिणी आयोग ने केंद्रीय सूची में जातियों के लिए 27% आरक्षण को चार उप-श्रेणियों में विभाजित करने का प्रस्ताव दिया।
  • 2018 में, आयोग ने पिछले पांच वर्षों में ओबीसी कोटा के तहत 13,00,00 केंद्रीय नौकरियों और केंद्रीय उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इसमें पाया गया कि सभी नौकरियों और शैक्षणिक सीटों में से 97% सभी वर्गीकृत उप-जातियों में से केवल 25% के पास चली गई हैं। और इनमें से 24.95% नौकरियाँ और सीटें सिर्फ 10 ओबीसी समुदायों को मिलीं। आयोग ने यह भी कहा कि 983 ओबीसी समुदाय, जो कुल का एक तिहाई है, का नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में लगभग शून्य प्रतिनिधित्व था।

जातिगत जनगणना का महत्त्व:

  • जातिगत जनगणना के पक्ष में और उसके खिलाफ कई तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि इस तरह की जनगणना करवाने से जो आंकड़े मिलेंगे उन्हें आधार बनाकर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समाज के उन तबकों तक पहुँचाया जा सकेगा, जिन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।  विपक्ष का तर्क ये है कि जातिगत जनगणना से एकजुटता मजबूत होगी और लोगों को लोकतंत्र में हिस्सेदारी मिलेगी।
  • एक तर्क यह है कि जातिगत जनगणना का फायदा ये होगा कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए आंकडे उपलब्ध होंगे तो उनके लिए तैयारी बेहतर तरीके से की जा सकती है।
  • इससे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नीतियाँ बनाने में विशेष रूप से मदद मिलेगी। 
  • सामाजिक  न्याय और आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए भी यह बेहद महत्वपूर्ण है। जातीय जनगणना सभी राज्यों के लिए जरूरी है।

चुनौतियां:

  • जातिगत भेदभाव बढ़ने की आशंका है।
  • समाज में सामाजिक-आर्थिक असमानता बढ़ सकती है।
  • जातियों को परिभाषित करना मुश्किल होगा।
  • सामाज में स्तरीकरण को बढ़ावा मिलेगा।

निष्कर्ष:

  • जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है, लेकिन इससे जुड़ी चुनौतियों के प्रति सचेत रहना भी आवश्यक है।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न:

  • जातिगत जनगणना के महत्त्व और इससे जुड़ी चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
  • जातिगत जनगणना समय की आवश्यकता है या राजनीतिक दांवपेच। विवेचना कीजिए