महिलाओं की गरिमा हेतु प्रतिमान शब्दावली की पहल

 

महिलाओं की गरिमा हेतु प्रतिमान शब्दावली की पहल

मुख्य परीक्षा:सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र 2

(सामाजिक न्याय)

21 अगस्त, 2023

चर्चा में क्यों:

  • हाल ही में भारत के प्रधान न्यायाधीश की पहल पर ‘हैंडबुक आन कमबैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ शीर्षक एक पुस्तिका प्रकाशित हुई है, जिसमें महिलाओं और लड़कियों के लिए लिंग-तटस्थ शब्दों की सूची दी गई है।

हैंडबुक आन कमबैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स:

प्रमुख बिंदु:

  • उद्देश्य: विशेषकर महिलाओं के प्रति रूढ़िवादिता को पहचानने, समझने और उसका मुकाबला करने में न्यायाधीशों और कानूनी समुदाय की सहायता करना।
  • यह न्यायाधीशों और वकीलों द्वारा अदालतों के समक्ष निर्णय लिखने या मामले दायर करने से बचने के लिए वैकल्पिक शब्दों की एक शब्दावली है।
  • यह महिलाओं और यौन अपराधों के संदर्भ में आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले कुछ संदर्भों को दर्शाती है।
  • साथ ही इनके स्थान पर उपयोग किए जाने वाले वैकल्पिक शब्दों या वाक्यों के सुझाव देती है।
  • इस पहल का विचार भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ की परिकल्पना है।
  • हैंडबुक में प्रतिस्थापित वैकल्पिक शब्द :
  • फूहड़, वेश्या, वेश्या, बहकाने वाली, पतित, सहज गुण वाली महिला, भारतीय महिला या पश्चिमी महिला जैसे शब्दों के प्रयोग को अब 'महिला' कहा जाएगा।
  • पतिव्रता नारी, पतित नारी कैरियर नारी जैसे भाव भी केवल 'स्त्री' ही रह जाएंगे।
  • पत्नी को कर्तव्यपरायण, बफादार और आज्ञाकारी कहना भी 'पत्री' भाव से प्रतिस्थापित कर दिया गया है।
  • हाउसवाइफ को होममेकर, अफेयर को शादी से बाहर संबंध, वेश्या को यौनकर्मी तथा छेड़छाड़ को सड़क पर यौन उत्पीड़न के रूप में संबोधित किया जाएगा।
  • वहीं, बच्चों या किशोरों के मामले में, शब्दावली में विवाह योग्य उम्र, बाल वेश्या आदि शब्दों को सूचीबद्ध किया गया है जिनसे बचना चाहिए।
  • हालाँकि, यह पुस्तिका न्यायाधीशों और वकीलों के लिए अनिवार्य नहीं है।
  • लेकिन यह हैंडबुक अतीत में इस्तेमाल किये जाने वाले शब्दों से बचकर न्याय के निष्पक्ष और न्यायसंगत रूप से परोसे जाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
  • जिससे न्यायिक प्रवचन, विशेषकर महिलाओं से संबंधित "पूर्वकल्पित लैंगिक रूढ़िवादिता" को खत्म करने के न्यायपालिका के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।
  • यह पुस्तक समाज में मौजूद आमतौर पर स्वीकृत लेकिन विकृत रूढ़िवादिता को तोड़ने की कोशिश करती है जो अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों में व्याप्त हो जाती है।
  • ध्यान देने की बात यह है कि इस हैंडबुक की एक डिजिटल प्रति सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है।
  • यह लैंगिक तटस्थ शब्दावली कलकत्ता हाईकोर्ट की जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य की अध्यक्षता वाली समिति ने तैयार की है।
  • इस समिति द्वारा गरिमा और मर्यादा के अनुरूप शब्दों की रूपरेखा बनाई गई है, ताकि भविष्य में जब न्यायालय अपने निर्णय सुनाएं, विधि की कक्षाओं में जब महिला विषयक कानूनों, अपराधों और प्रावधानों की शिक्षा दी जाए, तो इसी गरिमायुक्त शब्दावली का प्रयोग किया जाए।
  • यह समाज को उसके पूर्वाग्रहों, रूढ़िवादिता, पक्षपाती सोच से ऊपर उठाने और उसे आगे ले जाने में मददगार साबित होगा।

विश्लेषण:

  • एक महिला को महिला होने के नाते भावुक, कमजोर और अतार्किक कहना उसके व्यक्तित्व को नकारना है।
  • यह पुस्तिका हर प्रकार की आशंकाओं को निर्मूल सिद्ध करते हुए बड़े ही सकारात्मक ढंग से यह पक्ष प्रस्तुत करती है कि ऐसी घिसी-पिटी मान्यताओं से मुक्ति भी मिल सकती है। यानी, न्यायिक निर्णय लिखते समय, महिलाओं के मुद्दों पर बहस करते समय, विधि की कक्षाओं में पढ़ाते हुए और समाज में चल रही बहस के समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम रूढ़िवादी सोच के प्रकटीकरण से बचें।
  • चाहे समाज हो, समाज विज्ञानी, अपराध शास्त्री हों या फिर अध्ययन की अन्य कोई शाखा, वहां संकल्पनाओं की विशिष्ट व्याख्या परिभाषाओं के माध्यम से ही होती है। हम आदतन भी व्यक्ति, वस्तु, व्यवहार, क्रिया, प्रतिक्रिया आदि को परिभाषित करते रहते हैं। परिभाषाएं हमारे मस्तिष्क की सोच को भी एक निश्चित परिधि में बांधकर उसकी व्याख्या, विश्लेषण और मूल्यांकन करने को बाध्य कर देती हैं। इसीलिए उत्तर-आधुनिक विचारकों ने परिभाषाओं के बंधन को ढीला करने की कवायद भी की।
  • ऐसी पुस्तिका की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी, क्योंकि सामाजिक ताना-बाना रचने वाली रूढ़िवादी सोच का परोक्ष प्रभाव लोगों के समाजीकरण में दिखाई देता है। आपकी सोच पूर्वाग्रह ग्रस्त और एकपक्षीय है, आपको ज्ञात भी नहीं होता, क्योंकि यह अचेतन से अवचेतन और अवचेतन से चेतन मन-मस्तिष्क पर कैसे असर डालता रहता है, उसका हमें अंदाजा भी नहीं होता और परिणामस्वरूप हम अपनी कार्यप्रणाली, अपने घर और बाहर के व्यवहार में इसका अनजाने ही प्रयोग करते रहते हैं। विडंबना तो यह कि ऐसी भाषा-शैली और शब्द विन्यास हमें न्यायिक निर्णयों में भी देखने को मिलने लगे। इसलिए समय की मांग को समझते हुए यह पुस्तिका तैयार की गई।
  • हालांकि कुछ लोगों के मन में यह भी सवाल है कि क्या होगा, अगर प्रस्तावित शब्दावली का प्रयोग नहीं होगा? क्या इसको बाध्यकारी बनाने के लिए भी कोई कानून बनाया जाएगा? इन आशंकाओं के लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि इस पुस्तिका में प्रयुक्त शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग ही इसे व्यवहार की भाषा बना पाएगा। प्रस्तावनाएं दस्तावेजों की कुंजी मानी जाती हैं। इस पुस्तिका की प्रस्तावना प्रधान न्यायाधीश ने स्वयं लिखी है और यह याद दिलाने का प्रयास किया है कि न्यायमूर्ति की शपथ के क्या मायने होते हैं। जब एक न्यायमूर्ति शपथ लेता है तो वह यह सुनिश्चित करता है कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन वह बिना किसी भय, पक्षपात और दूषित मनोभाव से करेगा। उन्होंने अत्यंत दृढ़ता से इस बात को रखने का प्रयास किया है कि हर मामले का निर्णय उसके गुण-दोषों के आधार पर होना चाहिए, पूर्व निश्चित मान्यताओं के आधार पर नहीं।
  • उन्होंने कानून के जीवन में भाषा के महत्त्व की ओर भी इंगित करते हुए कहा है कि शब्द ही वे पहिए हैं, जिनसे हम कानून के मूल्यों को संप्रेषित कर पाते हैं। जब इन शब्दों का प्रयोग एक न्यायाधीश करता है तो वह केवल कानून का निर्वचन नहीं करता, बल्कि समाज के प्रति अपनी समझ को भी व्यक्त करता है। इसलिए जब उसके द्वारा एक लैंगिक दृष्टिकोण से न्यायपूर्ण शब्दावली का इस्तेमाल किया जाएगा, तो पूरे समाज पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा और फिर समाज में भी लोग उन शब्दों का प्रयोग करेंगे।
  • यह पुस्तिका लैंगिक रूढ़िवादिता को दूर करने और न्यायाधीशों और विधिक समुदाय की सहायता के लिए तैयार की गई है, ताकि ऐसे शब्दों की पहचान हो सके और उनके नकारात्मक प्रभावों को समझा और उन्हें दूर करने का प्रयास किया जा सके। अब समाज में विवाहेतर संबंध या बिना विवाह के संबंध भी बन रहे हैं। समाज में विभाजन का स्तर बढ़ता जाता है, तो ‘एनामी’ की स्थिति आती है, जिसे दुर्खीम ने प्रतिमान विहीनता कहा था। इसका शब्दकोशीय अर्थ है ‘सामाजिक और नैतिक मान्यताओं के प्रति सम्मान में कमी होना या सम्मान का न होना’। इस प्रतिमान विहीनता का शिकार स्त्री और पुरुष सभी होते हैं।
  • इस प्रसंग में प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोउवा ने कहा था कि ‘स्त्रियां पैदा नहीं होतीं, बल्कि बनाई जाती हैं।’ हम गढ़ते हैं एक स्त्री की परिभाषा और आजीवन कसते रहते हैं उसको एक कसौटी पर। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने भी कहा था कि ‘संस्कारों के नाम पर महिलाओं को अंधविश्वासों में जकड़ा जाता है, जिससे वे आजीवन मुक्त नहीं हो पाती हैं।’ इस पुस्तिका के एक खंड में ऐसे निर्णयों का भी उल्लेख किया गया है, जिनसे इन्हीं मान्यताओं को तोड़ने का प्रयास किया गया है, चाहे वह भंवरी देवी मामले के बाद तैयार ‘विशाखा’ के दिशा-निर्देश हों, जो बाद में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के कानून बनाने में मददगार हुए या फिर जोसेफ शाइन का मामला हो, जिसमें जारकर्म को अपराध के दायरे से बाहर रखने का प्रयास किया गया।
  • पहले ऐसे अनेक निर्णय हुए हैं, जिनमें महिलाओं के हित-रक्षा पर दूरगामी प्रभाव भी पड़ा है। चाहे नैना साहनी तंदूर कांड के मामले में सुशील शर्मा के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलते समय कहा गया कि नैना साहनी एक पढ़ी-लिखी और महत्त्वाकांक्षी महिला थी, वह एक गरीब और असहाय महिला नहीं थी। चाहे शबनम की फांसी के मामले में कहा गया कि पिता की हत्या करने वाली पुत्री, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने पिता का आजीवन मान रखेगी, उसे फांसी से कम किसी सजा का प्रस्ताव नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष:

  • यह पुस्तिका हर प्रकार की आशंकाओं को निर्मूल सिद्ध करते हुए बड़े ही सकारात्मक ढंग से यह पक्ष प्रस्तुत करती है कि ऐसी घिसी-पिटी मान्यताओं से मुक्ति भी मिल सकती है। यानी, न्यायिक निर्णय लिखते समय, महिलाओं के मुद्दों पर बहस करते समय, विधि की कक्षाओं में पढ़ाते हुए और समाज में चल रही बहस के समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम रूढ़िवादी सोच के प्रकटीकरण से बचें। स्त्रियों के व्यवहार को पूर्वाग्रही सोच से परिभाषित न करें और स्वस्थ समाज की रचना करने के लिए अपनी भाषा को परिमार्जित करें और लोगों को भी प्रेरित करते रहें।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं की गरिमा हेतु प्रतिमान शब्दावली की पहल की है। इस पहल के दूरगामी प्रभावों का उल्लेख कीजिए।