
भारतीय विदेश नीति की पड़ोसी देशों से समन्वय की चुनौतियां
भारतीय विदेश नीति की पड़ोसी देशों से समन्वय की चुनौतियां
प्रीलिम्स के लिए महत्वपूर्ण:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन, नेबरहुड फर्स्ट' नीति, एक्ट ईस्ट पॉलिसी, वैक्सीन डिप्लोमेसी, गुजराल सिद्धांत, पंचशील सिद्धांत, सार्क, ऑपरेशन कैक्टस
मेन्स के लिए महत्वपूर्ण:
GS-2: भारत की विदेश नीति के विकास के चरण, चुनौतियाँ, पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सौहार्दपूर्ण बनाने हेतु विभिन्न पहलें, आगे की राह
13 दिसंबर, 2023
संदर्भ:
वर्तमान में भारतीय विदेश नीति के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पड़ोसी देशों के साथ उसके संबंधों में निहित है। भारत ने वैश्विक दक्षिण में अग्रणी राष्ट्र,वैश्विक भू-राजनीतिक संघर्षों में मध्यस्थ और विश्व राजनीति में एक महत्वपूर्ण अभिकर्ता बनने जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित कर रखें हैं।
इस संदर्भ में भारत को अपने ही पड़ोसी देशों से बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। अन्य प्रमुख शक्तियों के विपरीत, भारत को दक्षिण एशिया में जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है।
इस तरह की परिस्थित इस क्षेत्र में एक उभरती हुई महाशक्ति के कारण और भी जटिल हो गई है। यद्यपि भारत क्षेत्रीय सहयोग का लक्ष्य रखता है, परंतु पड़ोसी देश भारत के दृष्टिकोण को पूरी तरह से अपनाने में झिझकते हुए दिखाई दे रहे हैं, जो इसकी आकांक्षाओं में अप्रत्यक्ष रूप से बाधाएँ उत्पन्न कर रहे है।
भारत की विदेश नीति के विकास के चरण
- ब्रिटिश काल से 1950 तक, भारतीय विदेश नीति पर ब्रिटिश हितों का प्रभाव था। भूटान ने अपने रणनीतिक दर्रे अंग्रेजों को सौंप दिए थे, लेकिन अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। 1816 में अंग्रेजों के पक्ष में सगौली की संधि के साथ नेपाल की स्वतंत्र स्थिति समाप्त हो गई थी। आंग्ल-बर्मा युद्धों के कारण 1885 में बर्मा पर नियंत्रण हो गया था।
- 1950 और 1960 के दशक में भारतीय विदेश नीति आदर्शवाद से प्रेरित थी। प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) और चीन के साथ पंचशील सिद्धांतों को अपनाया परंतु 1962 के भारत-चीन युद्ध ने संबंधों के पुनर्मूल्यांकन के लिए प्रेरित किया। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध ने तनाव को और बढ़ा दिया।
- 1970 से 1980 के दौरान भारतीय विदेश नीति में भारत ने आदर्शवाद से यथार्थवाद की विदेश नीति को अपनाया। इस दौरान भारत ने 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में हस्तक्षेप करते हुए एक अधिक मुखर विदेश नीति प्रकट की। 1985 में क्षेत्रीय सहयोग के लिए सार्क का गठन किया गया। 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते ने श्रीलंका के गृहयुद्ध को संबोधित किया और 1988 में ऑपरेशन कैक्टस ने मालदीव में तख्तापलट को विफल कर दिया था।
- शीत युद्ध के बाद भारत ने बदली वैश्विक परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी विदेश नीति में आर्थिक विकास पर जोर दिया और पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को और अधिक मजबूत बनाया। इसी प्रकार भारत की 'पूर्व की ओर देखो' नीति (1991) का उद्देश्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ संबंधों को मजबूत करना था। गुजराल सिद्धांत (1996) ने पड़ोसियों के साथ गैर-पारस्परिकता, गैर-हस्तक्षेप और शांतिपूर्ण विवाद समाधान पर जोर दिया। बिम्सटेक (1997) और आईओआरए (1997) ने क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया।
भारतीय विदेश नीति के समक्ष चुनौतियाँ:
भारत विरोधी व्यवस्थाओं का उदय:
- मालदीव में राजनीतिक रूप से भारत विरोधी शासन की स्थापना हुई है और वहाँ की सरकार भारतीय नागरिकों से वहां से चले जाने का आग्रह कर रही है यह भारत के समक्ष एक प्रत्यक्ष चुनौती है।
- इसके अतिरिक्त, ढाका में खालिदा जिया के नेतृत्व वाली सरकार बनने की संभावना बढ़ रही है, जो वैचारिक रूप से भारत से विरोध रखती हैं इससे भारत के लिए जटिलता और बढ़ सकती है।
बीजिंग के प्रभाव से संरचनात्मक दुविधाएं:
- दक्षिण एशिया में चीन का बढ़ता प्रभाव , विशेष रूप से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से, भारत की क्षेत्रीय स्थिति को जटिल बना रहा है। छोटे राज्यों तक बीजिंग की पहुंच अक्सर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मे स्वीकृत मानक विचारों को दरकिनार कर देती है।
बदलता भूराजनीतिक परिदृश्य:
- बदलते क्षेत्रीय भू-राजनीतिक परिदृश्य में संयुक्त राज्य अमेरिका की घटती उपस्थिति के साथ विकसित हुई शक्ति शून्यता को चीन द्वारा भरे जाने का प्रयास किया जा रहा है।
भारत की दुविधाओं के कारण:
क्षेत्रीय भूराजनीति:
- दक्षिण एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका की घटती उपस्थिति ने एक शक्ति निर्वात उत्पन्न कर दिया है। चीन का आक्रामक उदय छोटे राज्यों के लिए एक भू-राजनीतिक बफर के रूप में कार्य कर रहा है, जिससे उन्हें भारत का विकल्प मिल रहा है।
नीतिगत रुख और मान्यताएँ:
- सामान्यतः भारत की नीति अपने पड़ोसी देशों में सत्ता में बैठे लोगों पर ही केंद्रित रहती है जिससे अन्य सत्ता केंद्र अलग-थलग पड़ जाते हैं जो बदली परिस्थियों में भारत के लिए दुविधा उत्पन्न करता है । उभरती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के आलोक में यह संदेहपूर्ण है कि विश्वास कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध स्वाभाविक रूप से बेहतर संबंधों को बढ़ावा देंगे।
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सौहार्दपूर्ण बनाने हेतु विभिन्न पहलें:
'नेबरहुड फर्स्ट' नीति:
- यह नीति पड़ोसी देशों की चिंताओं और प्राथमिकताओं को संबोधित करने के लिए आपसी सम्मान, समझ और संवेदनशीलता पर जोर देती है।
- 2014 में शुरू की गई इस नीति का उद्देश्य क्षेत्रीय सहयोग और विकास पर बल देते हुए दक्षिण एशियाई और हिंद महासागर के देशों के साथ संबंध बढ़ाना है।
एक्ट ईस्ट पॉलिसी:
- यह पहल क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ाने के लिए दक्षिण पूर्व एशियाई और एशिया-प्रशांत देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने पर केंद्रित है।
कनेक्टिविटी पहल:
- भारत अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे, ईरान में चाबहार बंदरगाह और म्यांमार में कलादान मल्टीमॉडल पारगमन परिवहन परियोजना जैसी परियोजनाओं के माध्यम से कनेक्टिविटी को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रहा है।
विकासात्मक सहयोग:
- भारत तकनीकी,आर्थिक सहयोग (ITEC) कार्यक्रम और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से विकास सहायता प्रदान कर रहा है।
आगे की राह:
- भारत को अपने पड़ोस देशों से मिलने वाली चुनौतियाँ के समाधान हेतु एक व्यापक और रणनीतिक दृष्टिकोण को अमल में लाने की आवश्यकता है।
- भारत विरोधी शासन व्यवस्था के उदय, चीन के बढ़ते प्रभाव और क्षेत्रीय गतिशीलता में बदलाव के कारण भारत को अपनी पारंपरिक मान्यताओं और नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए।
- बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में भारत को अपनी स्थिति को सुरक्षित करने के लिए अनुकूलनशीलता, नवीनता और ऐतिहासिक प्रतिमानों में बदलाव करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:
बदली हुई वास्तविकताओं को स्वीकार करना, बाहरी तत्वों को सक्रिय रूप से शामिल करना, लचीली कूटनीति अपनाना और राजनयिक संसाधनों की कमी को दूर करना भारत के लिए अपने पड़ोस की दुविधाओं को सफलतापूर्वक हल करने के लिए महत्वपूर्ण कदम हैं। राष्ट्रीय हित के मामले में सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को रणनीतिक तौर पर एक जुट रहना चाहिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक मजबूत छवि उभर कर सके।
स्रोत: जनसत्ता
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मुख्य परीक्षा प्रश्न
पड़ोसियों के साथ भारत की विदेश नीति में ऐतिहासिक बदलावों और इसके प्रभाव से उत्पन्न चुनौतियों का का विश्लेषण कीजिए।